कीड़ाजड़ी के विलुप्त होने का खतरा: वैज्ञानिकों ने जताई चिंता

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वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी है कि उच्च हिमालयी क्षेत्रों में मिलने वाली कीड़ाजड़ी (यारसागंबू) के विलुप्त होने का खतरा बढ़ रहा है। इसका मुख्य कारण इसका समय से पहले अत्यधिक दोहन है, जिससे इसकी संख्या कम होती जा रही है और इसका क्षेत्र भी सीमित हो गया है। फरवरी के महीने से ही लोग कीड़ाजड़ी के लिए हिमालयी क्षेत्रों में पहुंचने लगते हैं, जबकि यह मार्च-अप्रैल के महीने के बाद पूरी तरह से परिपक्व होती है। समय से पहले इसका दोहन करने से इसकी मुख्य संरचना, फंफूद में बीजाणु बनने की प्रक्रिया पूरी नहीं हो पाती, जिससे इसका विकास प्रभावित होता है।

पिछले दो दशकों में कीड़ाजड़ी का वितरण भी बदला है। पहले यह 12,000 से 15,000 फीट की ऊंचाई पर मिलती थी, लेकिन अब यह 16,000 से 17,000 फीट तक सीमित हो गई है। इसका मुख्य कारण अत्यधिक दोहन है, जिससे इसकी उत्पादन क्षमता घट गई है और पर्यावरण पर भी असर पड़ा है। वैज्ञानिकों का सुझाव है कि कीड़ाजड़ी का दोहन हर साल न करें, बल्कि एक साल छोड़कर करें, ताकि इसका संरक्षण हो सके और हिमालयी बुग्याल सुरक्षित रह सकें।

उत्तराखंड में पहले हर साल लगभग 10 क्विंटल कीड़ाजड़ी का दोहन होता था, जो अब घटकर चार से पांच क्विंटल रह गया है। इसका मुख्य कारण इसका समय से पहले दोहन है। अगर दोहन के समय को सही तरीके से समायोजित किया जाए और बीजाणु बनने की प्रक्रिया पूरी होने दी जाए, तो इसकी उत्पादकता बढ़ सकती है। यह न केवल कीड़ाजड़ी के संरक्षण के लिए जरूरी है, बल्कि हिमालयी पारिस्थितिकी तंत्र के लिए भी महत्वपूर्ण है। समय से दोहन और सावधानी से संरक्षण से ही कीड़ाजड़ी की रक्षा संभव है और इसकी प्राकृतिक स्थिति सुरक्षित रह सकती है।

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