भोपाल में ‘नृत्य में अद्वैत’ कार्यशाला में 81 वर्षीय डॉ. पदमा सुब्रमण्यम ने किया भरतनाट्यम का शानदार प्रदर्शन

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भोपाल के भारत भवन में आयोजित तीन दिवसीय नृत्य कार्यशाला के दूसरे दिन शरणागति, अद्वैत और भक्ति पर सत्र आयोजित किए गए, जिनमें कला, साधना, और शिष्य-गुरु के संबंधों पर गहरी चर्चा की गई। इस कार्यशाला का उद्देश्य नृत्य के माध्यम से आध्यात्मिक उन्नति को बढ़ावा देना था।

 

सत्र के प्रमुख वक्ता डॉ. सुब्रमण्यम ने शंकराचार्य द्वारा रचित प्रसिद्ध भजन “गोविन्दम् भज गोविन्म” की प्रस्तुति दी, जो एक भक्ति गीत था। इस गीत के माध्यम से उन्होंने कला और भक्ति के अटूट संबंध को स्पष्ट किया। उन्होंने बताया कि शरणागति, अर्थात् आत्मसमर्पण, कला और साधना के शिष्य में होना अनिवार्य है, क्योंकि यह हमें भगवान और उच्चतम ज्ञान के पास ले जाता है। उन्होंने शैव सिद्धांत का हवाला देते हुए बताया कि शरणागति के माध्यम से हम उपासना के सबसे निकट पहुंच सकते हैं।

 

नृत्यांगना डॉ. पद्मजा सुरेश ने “अद्वैत” पर आयोजित सत्र में बताया कि नृत्य केवल कला नहीं, बल्कि एक साधना भी है। उन्होंने इसे आंतरिक जागरण और साधना के रूप में प्रस्तुत किया, जिसमें कला का माध्यम स्थूल से सूक्ष्म शरीर तक यात्रा करने का अवसर प्रदान करता है। वे कहती हैं, “नृत्य से हम शारीरिक रूप से एक साथ साधना और आंतरिक शुद्धता की ओर बढ़ते हैं।” इस दौरान, उन्होंने नाट्य में अभय मुद्रा का उदाहरण देते हुए कहा कि अभय अद्वैत का प्रतीक है, और यह कला महामाया के चिन्मय विलास का एक रूप है।

 

भरतनाट्यम नृत्यांगना और कोरियोग्राफर डॉ. रेवती रामचंद्रन ने भी अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में इस कार्यशाला के महत्व पर जोर दिया। उन्होंने कहा कि इस तरह के आयोजनों से न केवल मानसिक विस्तार होता है, बल्कि वे आध्यात्मिक उन्नति के लिए भी बेहद महत्वपूर्ण होते हैं। उन्होंने कहा कि कलाकार जब मंच पर होता है, तो वह सृष्टिकर्ता की भूमिका में होता है, जो कला के माध्यम से अपने रचनात्मकता का निर्माण करता है।

 

स्वामिनी विमलानंद सरस्वती ने नृत्य को एक साधना के रूप में प्रस्तुत किया। उनका मानना था कि कला की सुंदरता आनंद में होती है और कला के साथ हम मानसिक शुद्धता प्राप्त कर सकते हैं। वे वेदांत के संदर्भ में कहते हैं कि आत्मज्ञान के लिए मानसिक शुद्धता और एकाग्रता अनिवार्य हैं, और इसके लिए मन को राग और द्वेष से मुक्त करना आवश्यक है।

 

कार्यशाला के एक अन्य सत्र में डॉ. पद्मा सुब्रमण्यम ने शोधार्थियों, नृत्य अध्येताओं और छात्रों के साथ संवाद किया। उन्होंने गुरु-शिष्य के रिश्ते की महत्ता पर जोर दिया और बताया कि जब हम गुरु के प्रति आत्मसमर्पण करते हैं, तो संसार की सारी इच्छाएँ पूरी हो जाती हैं। गुरु की कृपा शिष्य के जीवन में अनंत संभावनाएँ खोल देती है।

 

कार्यशाला के अंत में, डॉ. पद्मा सुब्रमण्यम ने एक बेहतरीन भरतनाट्यम प्रस्तुति दी। उन्होंने शंकराचार्य द्वारा रचित भजन “गोविन्दम् भज गोविन्म” का प्रदर्शन किया, जिसमें उन्होंने आंगिक, वाचिक, कदमताल और भाव भंगिमाओं का मिश्रण प्रस्तुत किया। इस प्रस्तुति ने दर्शकों को मंत्रमुग्ध कर दिया और उन्हें एक अत्यंत भावपूर्ण अनुभव प्रदान किया।

 

कार्यशाला के समापन समारोह में, प्रसिद्ध गायक हर्षल पुलेकर ने भक्ति गीतों की प्रस्तुति दी, जिसने श्रोताओं को भाव विभोर कर दिया। उन्होंने “जय-जय राधा रमण” और “कौन कहता है भगवान आते नहीं” जैसे भक्ति गीत गाए, जिनसे श्रोता गहरी भक्ति रस में डूब गए।

इस प्रकार, तीन दिवसीय कार्यशाला ने कला, साधना, और भक्ति के संबंध को न केवल स्पष्ट किया, बल्कि सभी प्रतिभागियों को आध्यात्मिक और आंतरिक विकास की दिशा में प्रेरित भी किया।

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