Mahakumbh 2025: नागा संन्यासी की ‘मां’ से मिलन के भावुक पल, शैतानी, आलिंगन और आत्मीयता का संगम

सनातन का अर्थ होता है, शाश्वत या ‘सदा बना रहने वाला’, यानी जिसका न आदि है न अंत। इसके लिए जीना और इसी के लिए प्राण त्याग देना, ये नागाओं के जीवन का लक्ष्य होता है।
खुद का पिंडदान करने वाले और सबकुछ त्याग देने वाले नागा सनातन की रक्षा के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं। लेकिन एक बात हमेशा से कौतूहल का विषय रही है कि जब नागा संन्यासी शाही स्नान का हिस्सा बनते हैं तो अचानक से उनके भाव में बदलाव क्यों आ जाता है।
पहले शाही स्नान में भी ऐसा ही कुछ देखने को मिला। गंगा के तट से कुछ दूरी पर पहुंचते ही अचानक से उनके भाव बदलने लगे। इनके भाव आपको सोचने पर मजबूर कर देते हैं कि आखिर इस समय ये कैसी भावनाओं से गुजर रहे होते हैं। इसी विषय को जानने के लिए मेरी बात अखिल भारतीय संत समिति के राष्ट्रीय महामंत्री स्वामी जितेंद्रानंद सरस्वती से हुई।
जब उनसे मैंने यह सवाल किया तो उन्होंने बताया कि आपने कभी किसी बच्चे को देखा है, जब वो अपनी मां के आंचल में होता है तो उसका व्यवहार कैसा होता है। निडर, निर्भीक, ममता से ओतप्रोत और किसी भी चीज की परवाह न करने वाला।
नागा साधु के स्नान करने के पहले उसी अवस्था में होते हैं, क्योंकि ये गंगा को अपनी ‘मां’ मानते हैं। आप ही बताइए जब लंबे समय के बाद एक बच्चा अपनी मां से मिलेगा तो उसकी भावनाएं कैसी होंगी। इसीलिए जब नागा गंगा के करीब पहुंचते हैं तो अपनी मां से मिलने की बेताबी उनके भावों में नजर आ जाती है।
ये एक ऐसा क्षण होता है जिसे अध्यात्मक की पराकाष्ठा कहा जा सकता है। बच्चों का अपनी मां से मिलने का वाला यह क्षण कई वर्षों बाद आता है इसलिए उनका भाव ऐसा हो जाता है। इसलिए शाही स्नान के पहले आप जो नागाओं का भाव देखते हैं, दरअसल वह अठखेलियां हैं। भगवान शिव के दिगम्बर भक्त नागा सन्यासी महाकुंभ में इसी लिए सबका ध्यान अपनी तरह खींचते हैं।
यही वजह है शायद कि महाकुंभ में सबसे अधिक जन आस्था का सैलाब उन अखाड़ों की ओर बढ़ता है, जिनमें नागा संन्यासी अधिक होते हैं। अखाड़ों की छावनी की जगह सेक्टर 20 में गंगा का तट इन नागा संन्यासियों की उस परम्परा का साक्षी बन रहा है। जिसका इंतजार हर 12 साल में अखाड़ों के अवधूत करते हैं। नागा संन्यासियों की संख्या में जूना अखाड़ा सबसे आगे है जिसमे अभी 5.3 लाख से अधिक नागा संन्यासी हैं।