विजय दिवस: शहादत का गम और बिस्कुट का सहारा, शूरवीरों ने दी दुश्मन को करारी शिकस्त

हवलदार अमर सिंह (80), जो ऊना जिले के टाहलीवाल क्षेत्र के वायु गांव के निवासी हैं, 1971 के भारत-पाक युद्ध के नायक हैं। वे 13 डोगरा रेजिमेंट में सेवा दे चुके हैं और दिसंबर 1969 से दिसंबर 1971 तक बांग्लादेश में तैनात रहे। इस दौरान उन्होंने पाकिस्तान के खिलाफ विद्रोह करने वाले बांग्लादेशी नागरिकों को युद्ध की ट्रेनिंग दी और खुद भी युद्ध में हिस्सा लिया।हवलदार अमर सिंह बताते हैं कि जब 1971 में युद्ध शुरू हुआ, तो वे बांग्लादेश के दौलतपुर खुल्लां शहर में थे। वहां पाकिस्तान की सेना से उनकी मुठभेड़ हुई। उन्होंने और उनके साथियों ने पूरे साहस के साथ मुकाबला किया, हालांकि इस संघर्ष में उन्हें कई साथी और अफसर खोने पड़े। लेकिन फिर भी उनका हौसला नहीं टूटा और वे युद्ध में डटे रहे। उन्होंने मशीनगनों से गोलियां चलाकर पाकिस्तान सेना से मोर्चा लिया और उनकी तरफ से प्रशिक्षित विद्रोहियों, जिन्हें रजाकर कहा जाता था, ने भी उनका साथ दिया। युद्ध जीतने के बाद हवलदार अमर सिंह को ऐसा लगा कि उनके साथी जो शहीद हुए थे, उनकी कुर्बानी रंग लाई और उनका बलिदान व्यर्थ नहीं गया।
वहीं, स्वतंत्रता सेनानी तेजा सिंह का परिवार, जिसने स्वतंत्रता संग्राम और 1971 के युद्ध में बहुत बड़ा योगदान दिया, आज सरकारी उपेक्षा का सामना कर रहा है। तेजा सिंह का परिवार आज भी बुनियादी सुविधाओं के लिए संघर्ष कर रहा है, जबकि उनका इतिहास गौरवपूर्ण है। 84 वर्षीय ऑनरेरी कैप्टन सुखदेव सिंह, जिन्होंने 1971 के युद्ध में वीर चक्र प्राप्त किया, आज भी अपने गांव मवा कहोलां में बुनियादी सुविधाओं के बिना जीवन यापन कर रहे हैं। उनके घर तक पहुंचने के लिए एक सड़क तक नहीं है, और उन्होंने जिलाधीश और स्थानीय विधायक से मदद की अपील की है।यह परिवार, जिसने भारत की स्वतंत्रता और सुरक्षा के लिए अपने प्राणों की आहुति दी, आज उपेक्षा और अनदेखी का शिकार हो रहा है। कैप्टन सुखदेव सिंह के पिता, तेजा सिंह, आज़ाद हिंद फौज के सेनानी थे। उनके बड़े बेटे सुखचैन सिंह, 1971 के लोंगेवाल युद्ध में शहीद हो गए थे, और दूसरे बेटे कैप्टन सुखदेव सिंह ने वीर चक्र प्राप्त किया था। अब, इतने बड़े योगदान के बावजूद, यह परिवार बुनियादी सुविधाओं से वंचित है।